ग्रामीण भारत की बड़ी चुनौती: आज भी अधूरी चिकित्सा व्यवस्था

Dr SB Misra | Dec 09, 2025, 14:00 IST
गाँव में आज भी चिकित्सा व्यवस्था संतोषजनक नहीं है। 70% आबादी गाँवों में रहती है, लेकिन डॉक्टरों का सिर्फ़ 26% हिस्सा वहां उपलब्ध है। अस्पतालों की कमी, दवाइयों का अभाव, झोलाछाप डॉक्टरों का बोलबाला और तेजी से बढ़ती शहरी बीमारियां, ग्रामीण स्वास्थ्य को बड़ी चुनौती के रूप में खड़ी कर रही हैं।
Current health scenario in rural India primary health centre
( Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection )
भारत में चिकित्सा क्षेत्र का भी स्वर्णिम युग रहा होगा, जब हमारे देश में सुश्रुत और धनवंतरी जैसे वैद्य तथा सुखेन जैसे शल्य चिकित्सक हुआ करते थे। मुगलों के जमाने में चिकित्सक के रूप में हकीम लुकमान अली का नाम मशहूर है, वे भी लोगों का कष्ट दूर करते थे। अंग्रेजों के जमाने में वैद्य और हकीम के साथ एलोपैथी का वर्चस्व कायम था, जो आज भी है। एलोपैथी आयुर्वेद अथवा हकीम की दवाई से अधिक प्रभावी होने लगी और अंग्रेजी शासकों का समर्थन भी उसे प्राप्त रहा, इसलिए शहरों में चिकित्सा के क्षेत्र में एलोपैथी का एकमात्र वर्चस्व हो गया।

गाँव में आजादी के समय तक और बाद में भी दवाई–इलाज की उचित व्यवस्था नहीं थी और थोड़े-बहुत वैद्य हुआ करते थे, जिनके बारे में संस्कृत में कहा गया है, “वैद्यराजः यमराजस्य सहोदरः” अर्थात यमराज और वैद्य सगे भाई हैं। और यह भी कहा गया कि यमराज तो केवल प्राण ही लेता है, लेकिन वैद्य धन भी लेते हैं और प्राण भी। वैसे यह तो विनोद की बात रही होगी, लेकिन हकीमों के बारे में कहा जाता था: “नीम हकीम ख़तरा-ए-जान” और सच बात तो यह है कि गाँव में आज तक झोलाछाप डॉक्टर और नीम हकीम काम करते हैं और धन भी कमाते हैं।

इन सबके अलावा गाँव में बीमारी आने पर झाड़-फूंक का सहारा होता था। फिर चाहे नवजात बच्चों को टिटनेस हो जाए या पेट खराब हो या बुखार आए, तो महिलाएं नाउत लोगों के पास दौड़ती थीं और वे फूंक डालते थे, कुछ पढ़कर। अगर बच्चे ठीक हो जाते तो उनकी किस्मत, और नहीं ठीक हुए तो भगवान की मर्जी।

आजाद भारत में चिकित्सा की दिशा में भी शिक्षा आदि की तरह कुछ सुधार तो अवश्य हुआ है, लेकिन वह आवश्यकता से कहीं कम है। और जो प्राथमिक चिकित्सालय खोले भी गए हैं, उनमें शहर के डॉक्टर आकर काम करने को तैयार नहीं होते हैं ऐसा प्रतीत होता है। वहां पर न तो दवाईयां देने वाला कोई होता है और न दवाईयां ही उचित मात्रा में रहती हैं।

जब तक गाँव से निकले हुए छात्र डॉक्टर नहीं बनेंगे, तब तक सुधार की कोई उम्मीद नहीं है। और जब तक गांव में मेडिकल कॉलेज या चिकित्सा विद्यालय नहीं होंगे, तो डॉक्टर बनेंगे कैसे? देश की आबादी शहरों में रहने वाले लगभग 30% नागरिकों की है, जहां अधिकांश डॉक्टर तैयार किए जाते हैं और प्रैक्टिस करते हैं।

समय के साथ गाँव के लोगों की जीवन शैली बदल रही है और उनका वैसा स्वास्थ्य नहीं रहा जैसा पहले हुआ करता था। वहां भी गंभीर शहरी बीमारियां फैल रही हैं, जिनका मुकाबला करने के लिए गांव तैयार नहीं हैं। उस दिशा में किए गए सरकारी प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। योजनाएं बनाने भर से काम नहीं चलेगा, गाँवों और कस्बों में अस्पताल बनाने और उनमें डॉक्टर तैनात करने होंगे। आयुर्वेदिक अस्पताल जहां-तहां बने हैं, लेकिन वहां के डॉक्टर पुराने समय के वैद्यों की तरह नाड़ी-ज्ञान नहीं रखते, अंग्रेजी तरीके से ही निदान और चिकित्सा करते हैं। वह भी गांवों में अब उपलब्ध नहीं। वैद्य भी शहरों को आ गए।

आर्थिक मदद के लिए केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य बीमा योजना चलाई है और राज्य सरकार ने वृद्धा-पेंशन की राशि बढ़ाकर 400 रुपये प्रतिमाह कर दी है। लेकिन इलाज के लिए तो डॉक्टर, अस्पताल और दवाइयां चाहिए। उसकी व्यवस्था गांवों में नहीं है। गाँवों में देश की 70 प्रतिशत आबादी रहती है, परन्तु केवल 26 प्रतिशत डॉक्टर वहां उपलब्ध हैं। इसके विपरीत 30 प्रतिशत आबादी के साथ शहरों में 74 प्रतिशत डॉक्टर रहते हैं। शहरों में 20,000 की आबादी पर जहां 12 डॉक्टरों का औसत है, वहीं गांवों में 3 डॉक्टरों का।

बीमार होने पर बीपीएल कार्ड धारकों को इलाज के लिए सरकारी सहयोग राशि अपर्याप्त है, और बाकी पैसा किसी तरह इकट्ठा भी कर लें तो गाँवों में दूर-दूर तक अस्पताल नहीं। उन्हें मजबूर होकर ऐसे लोगों से इलाज कराना पड़ता है जिन्हें झोलाछाप डॉक्टर कहा जाता है। यदि अंग्रेजी डॉक्टर देश की 70 प्रतिशत आबादी के बीच जाकर सेवा नहीं करना चाहते तो किस काम के ऐसे डॉक्टर?

कई बार गाँव का आदमी आज भी झाड़-फूंक में काफी समय बिता देता है और शहर पहुंचने तक बहुत देर हो जाती है। सरकार ने भले ही गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खोले हैं, जिनकी हालत परिषदीय स्कूलों जैसी ही है। फिर भी गांव वालों को अपने इलाज के लिए इन्हीं प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों की नर्सों और दाइयों पर निर्भर रहना पड़ता है, डॉक्टर वहां कम ही मिलते हैं। कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि अंग्रेजी डॉक्टरों को देहात भेजना ही नहीं चाहिए, क्योंकि वे अनिच्छुक रहते हैं और प्रायः अनुपस्थित रहते हैं।

डॉक्टरों की कमी दूर करने के लिए जिस तरह गाँवों में इंजीनियरिंग कॉलेज खुल रहे हैं, वैसे ही मेडिकल कॉलेज खोलने की अनुमति प्रदान की जानी चाहिए। यदि गाँवों के लिए और कुछ नहीं कर सकते तो एलोपैथी, आयुर्वेद और होम्योपैथी का बंटवारा समाप्त करके ऐसे डॉक्टर तैयार करें जो गाँवों में काम करने के इच्छुक हों। डॉक्टरों में गाँव और शहर के कैडर बना दिए जाएं, जिनमें गांव में काम करने वालों का वेतन और सुविधाएं अधिक हों। जब तक विशेष आकर्षण नहीं होगा, गाँवों को डॉक्टर जाएंगे नहीं और जब तक अच्छे डॉक्टर वहां नहीं होंगे, गाँवों को उचित इलाज नहीं मिलेगा।

पहले की अपेक्षा गाँव वालों का भोजन और दिनचर्या इतनी बदल गई है कि उनके शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता घट गई है। शहर वालों की तरह वे भी जहरीला जंक फूड खाते हैं और परिश्रम नहीं करते। गाँवों में भी मैगी, मैकरोनी, पास्ता और पिज़्ज़ा का खूब चलन हो गया है, लेकिन वे यह नहीं जानते कि इनको देर तक सुरक्षित रखने के लिए जिन रासायनिक पदार्थों का प्रयोग होता है, उनमें से अनेक बहुत हानिकारक हैं। गाँवों के नौजवान, जो शहरों के संपर्क में आ चुके हैं, उन्हें जंक फूड यानी कचरा भोजन से प्यार हो चुका है। दो मिनट में तैयार होने वाले मैगी के जवाब में आटे के नूडल्स निकाले हैं, लेकिन कितना अंतर पड़ेगा, पता नहीं।

बिहार के लोग भूजा और सत्तू के बारे में भली-भांति जानते हैं जो हमारा फास्ट फूड है और जिसे रुचिकर बनाया जा सकता है। यह उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा आदि के गांवों में भी प्रयोग में लाया जाता है। इसके प्रयोग से कोई हानि नहीं, महीनों तक सुरक्षित रह सकता है, विविध प्रकार से मीठे या नमकीन स्वाद में खाया जा सकता है या फिर बाटी-चोखा में शामिल कर सकते हैं। बच्चों के स्वाद के लिए अनेक रूपों में प्रयोग कर सकते हैं। हमने विदेशी प्रचार के चक्कर में अपने अनेक व्यंजन त्याग कर कचरा भोजन को कबूल कर लिया और स्वास्थ्य बिगाड़ लिया। अब तक ध्यान में नहीं था कि जंक फूड में ज़हर होता है वह भी लेड जैसा ज़हर, जो शरीर में संग्रहीत (क्यूम्यूलेटिव) होता रहता है और अन्ततः मौत का कारण बनता है। यह भोजन स्टेटस-सिंबल यानी बड़प्पन की निशानी बन गया है।

लोगों को पता नहीं कि सत्तू अनेक देशों, फ़िजी, गुयाना, मॉरीशस के विदेशी बाजारों में भोजन ही नहीं, बल्कि पेय पदार्थ के रूप में भी प्रयोग में लाया जाता है। अपने देश में इसे पिछड़ेपन का प्रतीक और गाँवों का भोजन समझा जाता है। जंक फूड के साथ ही आते हैं तेजाबी ड्रिंक, जो मैगी से कम हानिकारक नहीं हैं।

इसके विपरीत हमारे देश के लोग सात्विक भोजन करते थे और कहते थे, “जीवेम शरदः शतम” अर्थात सौ साल तक जीना चाहिए। अब हम मधुमेह और रक्तचाप के जाल में फंसे हैं। फैसला हमें करना है कि हम जंक खाकर अकाल-मृत्यु मरना चाहते हैं या फिर खान-पान के बल पर सौ साल जीना चाहते हैं। हमें चिंता स्वाद की नहीं, बल्कि पौष्टिक तत्वों की होनी चाहिए।

हमारे देश के भोजन में प्रोटीन दालों से, कार्बोहाइड्रेट रोटी और चावल से, खनिज और विटामिन सब्जियों से और वसा घी-तेल से मिलता है। जब अरहर दाल की कमी हो जाती है तो हाय-तौबा मचती है। हमें बच्चों को संतुलित आहार के विषय में बताना चाहिए और संतुलित न होने पर कौन-कौन सी बीमारियां हो सकती हैं यह ज्ञान भी देना चाहिए। हमारे देश में कंद-मूल-फल का महत्व माना गया है, जिनसे विटामिन और खनिज लवण प्राप्त होते हैं।

भारत में निरोग जीवन पर आग्रह रहा है और उपचार के लिए स्थानीय स्तर पर उपलब्ध जड़ी-बूटियां, आयुर्वेद और योगासन आदि का सहारा लिया जाता था। आयुर्वेद में इस विधा का समावेश होने से यह कमी भी दूर हो जाएगी। पुराने समय में सबसे बड़ा रोग टीबी हुआ करता था, जिसे राजरोग कहते थे। अब कुछ लोग यह भ्रम पाल रहे हैं कि योग का संबंध हिंदू धर्म से है। यह देश प्लास्टिक सर्जरी के विज्ञान का जन्मदाता है और सुश्रुत को इसका जनक माना जाता है।

मनुष्य और जानवर विविध शारीरिक क्रियाएं हमेशा से करते आए हैं। महर्षि पतंजलि ने उन क्रियाओं को ध्यान से देखा और अष्टांग योग के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। आपने भी सांप को जमीन पर लेटे हुए फन उठाए देखा होगा- यही तो है भुजंगासन। कुत्ते, बिल्ली और मनुष्य को अंगड़ाई लेते हुए देखा होगा- ताड़ासन, हलासन और धनुरासन जैसे ये सब। अनेक आसन जानवरों की पोज़ीशन के नाम से जाने जाते हैं। जब इन मुद्राओं के साथ मन-मस्तिष्क का तालमेल रहता है तो योग बन जाता है।

आज का वैज्ञानिक मानता है कि 90 प्रतिशत रोग साइकोसोमैटिक हैं- यानी मनोदशा के कारण हैं। अनेक आर्थोपेडिक रोगों का इलाज केवल योग में है। इसलिए मन को शांत करके मनोविकारों को दूर करने के लिए योगाभ्यास से बेहतर कोई उपाय नहीं, यह दुनिया मानने लगी है। कुछ लोग सोचते हैं कि योग के बदले कसरत कर सकते हैं, जिम जा सकते हैं, खेल-कूद में भाग लेकर शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं। लेकिन मन-मस्तिष्क का व्यायाम वहां नहीं होगा। मांस-पेशियों की कसरत और रक्त संचार के लिए विविध व्यायाम तो काम करेंगे, परन्तु शरीर के अंदर के अंगों का व्यायाम सहज रूप से तो योग से ही होगा। प्राणायाम से फेफड़े, लीवर, किडनी, हृदय और दिमाग — सभी का व्यायाम हो जाता है। योग में अंग-प्रत्यंग का व्यायाम सहज रूप से होता है, जबकि जिम आदि में हठपूर्वक व्यायाम होता है।

प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका की संसद में ठीक ही कहा कि हम योग विज्ञान का मूल्य नहीं मांगेंगे या इसका पेटेंट नहीं कराएंगे। योग को इसलिए त्यागना ठीक नहीं कि इसे हजारों साल से भारत में मान्यता मिली है। सरल भाषा में इसे विज्ञान के रूप में स्वीकार करना चाहिए, न कि धर्म के रूप में। ओंकार अथवा भ्रामरी की ध्वनि तरंगें यदि मन-मस्तिष्क को स्वस्थ करती हैं तो इसे स्वीकार कीजिए या न कीजिए, मर्जी आपकी। इतना जरूर है कि यह विधि, जो बिना दवाई और बिना खर्चे के शरीर और मन को निरोग करती है, किसी के भगवान के विरुद्ध नहीं हो सकती। दुनिया के तमाम अस्पतालों में योग विधि का सफलतापूर्वक प्रयोग होने लगा है।

गाँव से आए मरीजों और उनके तीमारदारों की शहर के अस्पतालों में चीख-पुकार बराबर सुनी जा सकती है।

अंग्रेजी डॉक्टरों की कमी का एक कारण यह भी है कि कई एमबीबीएस डॉक्टर आईएएस करके प्रशासनिक सेवाओं में चले जाते हैं। यदि उन्हें IAS की नौकरी इतनी भाती है तो MBBS क्यों किया? इसी प्रकार अनेक डॉक्टर पैसे के लालच में विदेशों में जाकर नौकरी करते हैं। यह सब देश हित में नहीं है। दुर्भाग्यवश हमारी सरकारें प्रशिक्षित डॉक्टरों को देहात भेज नहीं पा रही हैं और देहात की पुरानी पद्धतियों को विकसित करने के लिए कुछ कर भी नहीं रहीं।

देश में मेडिकल कॉलेजों की कमी है, डॉक्टरों के पद खाली पड़े हैं। बजट की कमी है, यानी गाँवों में डॉक्टरों के रहने और काम करने का खराब वातावरण है। उनके बच्चों के लिए अच्छे स्कूलों की कमी है और प्राइवेट प्रैक्टिस से उन्हें शहरों की अपेक्षा गाँवों में कम आमदनी है। डॉक्टरों को दूसरे देशों में जाने से बचाने की जरूरत है। जब तक विशेष आकर्षण नहीं होगा, गाँवों को डॉक्टर स्वतः नहीं जाएंगे और जब तक अच्छे डॉक्टर वहां जाएंगे नहीं, गाँवों को दोयम दर्जे का इलाज मिलता रहेगा।

हमारे देश में बीमारियों के कारण मिटाने की आवश्यकता है क्योंकि वे जन्मजात नहीं हैं। कुपोषण के कारण शरीर की रोग-अवरोधी क्षमता घट जाती है, इसलिए इलाज कुपोषण का करना होगा। गंदगी के कारण मच्छर, मक्खी, बैक्टीरिया और वायरस पल रहे हैं, इसलिए स्वच्छ भारत का अभियान नितांत प्रासंगिक है। अनेक बीमारियों का जन्म प्रदूषण से होता है, इसलिए पर्यावरण को ठीक करने की जरूरत है। हमें अपनी जीवन-शैली में बदलाव की जरूरत है, जिसके लिए दवाई नहीं, मन का संकल्प चाहिए। भारतीय मनीषियों का बताया रास्ता आज भी प्रासंगिक है और आजीवन स्वस्थ रखा सकता है।
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