कहानी बीजों की, मिट्टी की और एक किसान की जिसने भविष्य को बचाने की ठान ली
Gaon Connection | Dec 09, 2025, 12:00 IST
जब सिक्कों के बजाए “बीजों की गुल्लक” भरने वाला किसान बने देश की असली धरोहर। मध्य प्रदेश के गाँव में बाबूलाल दहिया ने जो दास्तान लिखी है, वो सिर्फ कृषि की नहीं, पहचान, संस्कृति और भविष्य की है। जानिए कैसे एक छोटे से सीड बैंक ने हज़ारों बीजों, बीत चुके वक़्त और आने वाली पीढ़ियों की ज़रूरतों को संजो रखा है।
( Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection )
बर्फ के नीचे बने दुनिया के सबसे बड़े सीड बैंक स्वालबार्ड ग्लोबल सीड वॉल्ट से लगभग 6778 किमी दूर भारत के एक गाँव में बीज बचाने के लिए एक किसान ने बीज बैंक शुरू किया है। ये हैं पद्मश्री बाबूलाल दहिया।
बचपन में हममें से कई लोगों के पास एक गुल्लक हुआ करता था। कभी–कभी उसमें सिक्के जमा कर लेते थेए ताकि भविष्य में, किसी छोटी-बड़ी ज़रूरत या किसी ख़ुशी के पल के लिए काम आ सके। लेकिन मध्य प्रदेश के किसान बाबूलाल दहिया ने उस बचपन की गुल्लक से कहीं ज़्यादा बड़ी और कीमती गुल्लक बनाई है- एक “सीड बैंक (Seed Bank)”।
मध्य प्रदेश के सतना ज़िले के एक छोटे से गाँव में रहते हैं बाबू लाल दहिया।
बाबूलाल जी कहते हैं, “जैसे कोई सिक्कें या डाक टिकट जमा करता है, वैसे ही मैंने देसी बीज इकट्ठा करना शुरू किया।” उनकी यह “बीजों की गुल्लक” सिर्फ उनकी ज़रूरत नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों, भारत की खाद्य-सुरक्षा, और मिट्टी-जैव विविधता के लिए अनमोल है।
क्यों ज़रूरी है बीजों की पुर्नरखरखाव
वैज्ञानिक बताते हैं कि आज दुनियाभर की फसलों, अनाज, दाल, सब्ज़ी, फल-फूल — की कई पारंपरिक किस्में या तो गायब हो चुकी हैं, या विलुप्ति के कगार पर हैं। जब हम सिर्फ आधुनिक, हाईब्रिड और केमिकल-निर्भर खेती पर निर्भर हो जाते हैं, तो फसल-विविधता (genetic diversity) खतरे में पड़ जाती है।
यहां पर Seed Bank का महत्व समझ आता है। बीज बैंक, एक प्रकार का जीन बैंक, इन पारंपरिक और स्थानीय किस्मों के बीजों को सहेज कर रखता है। ताकि ज़रूरत पड़ने पर, इन बीजों से खेती फिर शुरू की जा सके, चाहे जलवायु बदल जाए, कोई प्राकृतिक आपदा आ जाए, या खेती के तरीके बदल जाएँ।
असल में, दुनिया का सबसे बड़ा बैक-अप सिस्टम है Svalbard Global Seed Vault, जो जेनेटिक संसाधनों की सबसे सुरक्षित तिजोरी है। इस वॉल्ट में आज लगभग 13 लाख से अधिक बीज नमूनों (seed samples) को सुरक्षित रखा गया है, ताकि अगर किसी देश की खेती या जीन बैंक नष्ट हो जाए, तो वे वहीं से पुनर्निर्माण कर सकें।
बाबूलाल दहिया का काम बड़े पैमाने पर तो नहीं, पर ज़मीनी स्तर पर उसी दिशा में एक मजबूत कदम है।
गाँव की मिट्टी, बीजों की पहचान
बाबूलाल कहते हैं कि 70 के दशक में भारत में देसी धान की प्रजातियाँ लगभग 1.1 लाख थीं। आज अगर पूरे देश में देखें, तो 10 हजार भी शायद नहीं मिलेंगी। उनके पास अब केवल 200–300 किस्में बचे हैं और वो अपने सीड बैंक में इन्हें सहेज रहे हैं।
उनका कहना है, “ये बीज हमारे पूर्वजों ने खोजे थे, पाले थे। वैज्ञानिकों ने नहीं। उनकी आनुवंशिक विविधता, उनकी मिट्टी में जड़ें, उनके स्वाद, इन्हें खो देना, अपने अतीत और अपनी पहचान को खोना है।”
इसलिए, जब भी उन्हें किसी गाँव में कोई देसी बीज देखने मिलता है, वो उसे संभाल लेते हैं, छोटे पोटली में बाँधकर सील करते हैं, और अपने सीड बैंक में जोड़ लेते हैं।
सीड बैंक से मौसम, जलवायु और भू-उत्पादन की चुनौतियों में सहारा
कृषि वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि जलवायु परिवर्तन, सूखा, बाढ़, महामारी, इन सब से खेती प्रभावित हो रही है। ऐसे में सिर्फ एक या दो फसल-प्रजातियों पर निर्भर करना ज़्यादा ख़तरे वाला हो गया है। पारंपरिक बीजों की विविधता ही हमें लचीला (resilient) बनाती है।
सीड बैंक, चाहे वो लोक-स्तर का हो या राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय, इन चुनौतियों के सामने हमारे बचाव का पहला डिफेन्स है। अगर किसी फसल की किस्म मिट जाए, तो उसकी पुनर्रचना पुराने बीजों से संभव है।
बाबूलाल दहिया ने अपने गांव में यह संदेश फैलाया कि सिर्फ आधुनिक बीजों की ओर भागने से पहले, अपनी मिट्टी और अपने बीजों को बचाइए। उन्होंने यह साबित किया कि देसी किस्मों में आज भी ताकत, स्वाद और टिकाऊपन है।
गाँव से विज्ञान तक, सीड बैंक की महत्ता
बीज बैंक सिर्फ किसानी के लिए नहीं, ये हमारे सांस्कृतिक, पारंपरिक, और आनुवंशिक इतिहास का भंडार है। हर देसी बीज एक विरासत है, हमारी मिट्टी, हमारी लोक-संस्कृति, हमारी पहचान।
गाँव का एक किसान, जिसकी उम्र 80 साल पार कर चुकी है, जब अपने पुराने बीजों का संग्रह करता है, वो वह काम कर रहा होता है, जो हजारों वैज्ञानिकों और जीन बैंक संस्थाओं की पीठ थपथपा दे।
और जब हमारा गाँव, हमारा किसान, अपनी मिट्टी, अपनी किस्मों, अपनी जड़ों को बचाता है, तो वह असल में भारत के भविष्य के लिए निवेश कर रहा होता है। क्योंकि आने वाली पीढ़ियाँ उन्हीं बीजों से फिर खेती करेंगी; उन्हीं स्वाद, उन्हीं पौष्टिकता, उन्हीं किस्मों से अपने खेतों को बोएँगी।
अगर हम न रोकें, तो मिट जाएँगी कई किस्में
वर्तमान में, वैज्ञानिक मूल्यांकन बताते हैं कि जितनी बीज-विविधता (crop diversity) कभी थी, उससे आधी से ज़्यादा अब या तो लुप्त हो चुकी है, या संकटग्रस्त है।
अगर हमने इन्हें संरक्षित नहीं किया तो भविष्य की चुनौतियाँ: जलवायु परिवर्तन, नया रोग-बाद, कीट, बाजार की सफाई, सब मिलकर हमारी खाद्य सुरक्षा पर बड़ा संकट ला सकते हैं।
लेकिन वही ग्लोबल सीड वॉल्ट हों या गाँव-स्तरीय सीड बैंक यदि हम अपनी देसी किस्मों को बचाए रखें, उन्हें संरक्षित रखें, और अगली पीढ़ियों तक पहुंचाएँ, तो हम न केवल भूख और खाद्य असुरक्षा से लड़ सकते हैं, बल्कि अपनी मिट्टी, अपनी जमीन, अपनी पहचान बचा सकते हैं।
बचपन में हममें से कई लोगों के पास एक गुल्लक हुआ करता था। कभी–कभी उसमें सिक्के जमा कर लेते थेए ताकि भविष्य में, किसी छोटी-बड़ी ज़रूरत या किसी ख़ुशी के पल के लिए काम आ सके। लेकिन मध्य प्रदेश के किसान बाबूलाल दहिया ने उस बचपन की गुल्लक से कहीं ज़्यादा बड़ी और कीमती गुल्लक बनाई है- एक “सीड बैंक (Seed Bank)”।
मध्य प्रदेश के सतना ज़िले के एक छोटे से गाँव में रहते हैं बाबू लाल दहिया।
बाबूलाल जी कहते हैं, “जैसे कोई सिक्कें या डाक टिकट जमा करता है, वैसे ही मैंने देसी बीज इकट्ठा करना शुरू किया।” उनकी यह “बीजों की गुल्लक” सिर्फ उनकी ज़रूरत नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों, भारत की खाद्य-सुरक्षा, और मिट्टी-जैव विविधता के लिए अनमोल है।
क्यों ज़रूरी है बीजों की पुर्नरखरखाव
वैज्ञानिक बताते हैं कि आज दुनियाभर की फसलों, अनाज, दाल, सब्ज़ी, फल-फूल — की कई पारंपरिक किस्में या तो गायब हो चुकी हैं, या विलुप्ति के कगार पर हैं। जब हम सिर्फ आधुनिक, हाईब्रिड और केमिकल-निर्भर खेती पर निर्भर हो जाते हैं, तो फसल-विविधता (genetic diversity) खतरे में पड़ जाती है।
यहां पर Seed Bank का महत्व समझ आता है। बीज बैंक, एक प्रकार का जीन बैंक, इन पारंपरिक और स्थानीय किस्मों के बीजों को सहेज कर रखता है। ताकि ज़रूरत पड़ने पर, इन बीजों से खेती फिर शुरू की जा सके, चाहे जलवायु बदल जाए, कोई प्राकृतिक आपदा आ जाए, या खेती के तरीके बदल जाएँ।
असल में, दुनिया का सबसे बड़ा बैक-अप सिस्टम है Svalbard Global Seed Vault, जो जेनेटिक संसाधनों की सबसे सुरक्षित तिजोरी है। इस वॉल्ट में आज लगभग 13 लाख से अधिक बीज नमूनों (seed samples) को सुरक्षित रखा गया है, ताकि अगर किसी देश की खेती या जीन बैंक नष्ट हो जाए, तो वे वहीं से पुनर्निर्माण कर सकें।
बाबूलाल दहिया का काम बड़े पैमाने पर तो नहीं, पर ज़मीनी स्तर पर उसी दिशा में एक मजबूत कदम है।
गाँव की मिट्टी, बीजों की पहचान
बाबूलाल कहते हैं कि 70 के दशक में भारत में देसी धान की प्रजातियाँ लगभग 1.1 लाख थीं। आज अगर पूरे देश में देखें, तो 10 हजार भी शायद नहीं मिलेंगी। उनके पास अब केवल 200–300 किस्में बचे हैं और वो अपने सीड बैंक में इन्हें सहेज रहे हैं।
उनका कहना है, “ये बीज हमारे पूर्वजों ने खोजे थे, पाले थे। वैज्ञानिकों ने नहीं। उनकी आनुवंशिक विविधता, उनकी मिट्टी में जड़ें, उनके स्वाद, इन्हें खो देना, अपने अतीत और अपनी पहचान को खोना है।”
इसलिए, जब भी उन्हें किसी गाँव में कोई देसी बीज देखने मिलता है, वो उसे संभाल लेते हैं, छोटे पोटली में बाँधकर सील करते हैं, और अपने सीड बैंक में जोड़ लेते हैं।
सीड बैंक से मौसम, जलवायु और भू-उत्पादन की चुनौतियों में सहारा
कृषि वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि जलवायु परिवर्तन, सूखा, बाढ़, महामारी, इन सब से खेती प्रभावित हो रही है। ऐसे में सिर्फ एक या दो फसल-प्रजातियों पर निर्भर करना ज़्यादा ख़तरे वाला हो गया है। पारंपरिक बीजों की विविधता ही हमें लचीला (resilient) बनाती है।
सीड बैंक, चाहे वो लोक-स्तर का हो या राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय, इन चुनौतियों के सामने हमारे बचाव का पहला डिफेन्स है। अगर किसी फसल की किस्म मिट जाए, तो उसकी पुनर्रचना पुराने बीजों से संभव है।
बाबूलाल दहिया ने अपने गांव में यह संदेश फैलाया कि सिर्फ आधुनिक बीजों की ओर भागने से पहले, अपनी मिट्टी और अपने बीजों को बचाइए। उन्होंने यह साबित किया कि देसी किस्मों में आज भी ताकत, स्वाद और टिकाऊपन है।
गाँव से विज्ञान तक, सीड बैंक की महत्ता
बीज बैंक सिर्फ किसानी के लिए नहीं, ये हमारे सांस्कृतिक, पारंपरिक, और आनुवंशिक इतिहास का भंडार है। हर देसी बीज एक विरासत है, हमारी मिट्टी, हमारी लोक-संस्कृति, हमारी पहचान।
गाँव का एक किसान, जिसकी उम्र 80 साल पार कर चुकी है, जब अपने पुराने बीजों का संग्रह करता है, वो वह काम कर रहा होता है, जो हजारों वैज्ञानिकों और जीन बैंक संस्थाओं की पीठ थपथपा दे।
और जब हमारा गाँव, हमारा किसान, अपनी मिट्टी, अपनी किस्मों, अपनी जड़ों को बचाता है, तो वह असल में भारत के भविष्य के लिए निवेश कर रहा होता है। क्योंकि आने वाली पीढ़ियाँ उन्हीं बीजों से फिर खेती करेंगी; उन्हीं स्वाद, उन्हीं पौष्टिकता, उन्हीं किस्मों से अपने खेतों को बोएँगी।
अगर हम न रोकें, तो मिट जाएँगी कई किस्में
वर्तमान में, वैज्ञानिक मूल्यांकन बताते हैं कि जितनी बीज-विविधता (crop diversity) कभी थी, उससे आधी से ज़्यादा अब या तो लुप्त हो चुकी है, या संकटग्रस्त है।
अगर हमने इन्हें संरक्षित नहीं किया तो भविष्य की चुनौतियाँ: जलवायु परिवर्तन, नया रोग-बाद, कीट, बाजार की सफाई, सब मिलकर हमारी खाद्य सुरक्षा पर बड़ा संकट ला सकते हैं।
लेकिन वही ग्लोबल सीड वॉल्ट हों या गाँव-स्तरीय सीड बैंक यदि हम अपनी देसी किस्मों को बचाए रखें, उन्हें संरक्षित रखें, और अगली पीढ़ियों तक पहुंचाएँ, तो हम न केवल भूख और खाद्य असुरक्षा से लड़ सकते हैं, बल्कि अपनी मिट्टी, अपनी जमीन, अपनी पहचान बचा सकते हैं।